यह निस्संदेह एक आदमी की दुनिया है जहां पुरुष और महिला दोनों काम करते हैं
लेकिन केवल महिला ही है जिसे घर के अंदर के कामों का पूरा प्रभार लेना पड़ता है।
इतना ही नहीं, अगर कोई पुरुष देर रात को अपने कामकाजी घंटों को बढ़ा देता है तो यह सिर्फ अत्यधिक
कार्यभार का मामला है, लेकिन अगर एक महिला सिर्फ एक घंटे के लिए देर से लौटती है
तो व्यभिचार नहीं तो कम-से-कम बुरा चरित्र का संकेत तो माना ही जाता है। एक आदमी
अपनी पत्नी के सामने अपने विवाहपूर्व के तीन-तीन प्रेमिकाओं के साथ हर स्तर तक की अपनी प्रेम-लीलाओं का खुल कर बखान कर सकता है लेकिन अगर पत्नी किसी पुरुष के साथ अपने बचपन के संबंध में भी
बताने की हिम्मत करती है तो वह पत्नी त्यागने योग्य हो जाती है। यह केवल पुरुषों की दुनिया में संभव है
जहां एक बेटी अपने पिता के सामने अपनी पसंद व्यक्त नहीं कर सकती है और उसके आगे प्रेमी के साथ पलायन हेतु घर छोड़ने के अलावा कोई रास्ता नहीं है। इसके बाद भी जब उसके पिता के दिल में पुनर्विचार का कोई संकेत नहीं होता। प्रस्तुति ने इन सभी मुद्दों को खूबसूरती से प्रस्तुत किया।
लेकिन हां, यह वैवाहिक लड़ाई का आँखों देखा हाल मात्र नहीं था, यह नाटक अपने
वैवाहिक जीवन की खटास को आनंदमय में बदलने के तरीकों की खोज
भी है। आखिरकार, सदियों से विकसित किए गए आचार पलक झपकते नहीं जा सकते हैं।
और इसके लिए आपको आगामी अनेक पीढ़ियों तक निरंतर
प्रयास करना होगा। स्पष्ट रूप से जीवन छोटा है और अपने वर्तमानजीवन साथी के साथ इसका आनंद क्यों न लिया
जाय जो पुरुषवादी संस्कार की खराबियों के रहते हुए भी बहुत ही विचारशील और अच्छे दिल वाला है। देखा जाय
तो वह पति अकेला पुरुष-प्रधान समाज को
बनाने के लिए दोषी नहीं है। तो, कार्यालय के कामों और पारिवारिक जिम्मेदारियों के कारण दम्पति पिछले तीस सालों में जिनका आनंद नहीं ले पाये उन प्यार के क्षणों पर ध्यान केंद्रित
क्यों न करें। पहले जब भी पत्नी को प्यार के लिए अपना आंतरिक इच्छा महसूस हुई तब उसके पति ने उसे क्रूरता से
नजरअंदाज कर दिया यह कहते हुए कि वह अभी थका है या अभी बच्चे मौजूद हैं। आखिरकार, क्या बिगड़ जाता अगर पति ने कुछ ऐसा कह ही दिया होता जैसे कि "पर्दे का रंग शानदार है, तुम्हारा बनाया भोजन वह अविश्वसनीय रूप से स्वादिष्ट है, तुम्हारी साड़ी जादुई
है और तुम्हारी मुस्कुराहट गज़ब की है!" और दर्शक इस तरह की असंतुष्ट पत्नी को
भी देवी से कम नहीं मानेंगे जिसने स्वयं बिलकुल इच्छा न रहते हुए भी सिर्फ पति की
शारिरिक भूख को दूर करने हेतु उसकी उत्कट इच्छा होने पर अपने मांसल शरीर को उसके आगे
परोस दिया करती थी.
और हमें इस भारतीय जोड़े को सलाम करना होगा, जो कि विचारधारात्मक विवादों की लम्बी श्रृंखला
के बाद भी सच्चे दिल से एक-दूसरे को गले लगाने के लिए उम्र के छ्ठे दशक में समझदारी
बिकसित कर लेता है। यह नाटककार का जादू है, जो सभी प्रकर के भंवरों और भयंकर दुश्मनी के
तूफान के बीच से गुजरते हुए भी चरमोत्कर्ष पर आकर तीव्र भावनात्मक उद्वेग के साथ पति-पत्नी
एक-दूसरे के प्रति स्वयँ को समर्पित करते दिखते हैं। पूरे नाट्य प्रस्तुति के दौरान
दर्शक अपने अस्तित्व को भूलकर नाटक में खोये थे जबकि उनके आम जीवन के किरदारों को मंच
पर जीया जा रहा था।
यह कहना सच होगा कि विवेक कुमार (पति) और रुबी खतुन (पत्नी) कोई अभिनय नहीं कर
रहे थे बल्कि पात्रों को जी रहे थे। पति और पत्नी के किरदारों में दोनो कलाकारों द्वारा उनकी कला का बेमिसाल
प्रदर्शन था। उनके चेहरे की भंगिमाएँ सारी स्थितियों को बयाँ कर रहीं थीं और मुख से निकल
रहे शब्द दर्शकों के दिल को झकझोरने वाले थे । चेहरे, ध्वनि का उतार-चढ़ाव, आंखों और होंठ की गति सीधे अदाकारों की आत्मा से निकल रही थी। यह सब नाटककार के
शब्दों से आगे जाकर पटकथा कह पा रहे थे और आपके-हमारे घरों के पति-पत्नी के बीच आम
तौर पर पाये जानेवाले एक वास्तविक जीवन का तनाव पैदा कर रहे थे।
मंच के बाएं मध्य में रसोईघर सही ढंग से एक प्रमुख स्थान पर रखा गया था जो प्रोबोध विश्वकर्मा (सेट-डिज़ाइन) का एक उपयुक्त विचार
था। भव्य सोफे, पर्दे और टेबल-कपड़ों ने एक ऐसे माहौल का निर्माण किया जहां लोग रिश्ते के
मामलों पर ध्यान केंद्रित कर सकते थे। यह व्यवस्था जितेंद्र कुमार जितु
(सेट-सजावट) ने की थी। रवि वर्मा का प्रकाश-संयोजन
दोषरहित था और कई बार यह विशेष रूप से प्रभवकारी दिखा जैसे कि जब दोनों पति और
पत्नी मंच के सामने की ओर से दोनों पैर लटका कर जब पति-पत्नी गर्मजोशी के साथ एक-दूसरे
के गले लग रहे थे। मो. जाफर ने दृश्यों
में अच्छी तरह से जमनेवाले बहुत ही लोकप्रिय गीतों का चयन किया और उन्हें ठीक से
इस्तेमाल किया। राजेश कृष्ण, सूरज प्रकाश, कृ उदय सिंह और डॉ. शैलेंद्र ने भी इस प्रस्तुति को मूल्यवान बनाने में योगदान दिया।
श्रेय, निर्देशक स्वरम उपाध्याय को भी जाना चाहिए जिन्होंने अभिनेताओं से
सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन लिया। मंच के भागों का चयन जहां एक विशेष संवाद अदा किया
जाएगा, शानदार था ! स्वरम यह
अच्छी तरह से जानते हैं कि नाट्य-निर्देशन, आदेश का पर्याय नहीं है, बल्कि अभिनेताओं को यह महसूस कराने का दूसरा नाम है कि वे पात्र
को जीते हुए कैसा महसूस करते हैं। यह प्रदर्श दर्शकों के मन में में जीवन भर के
लिए सुखद स्मृति के रूप में हमेशा के लिए मौजूद रहेगी.
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समीक्षक - हेमन्त दास 'हिम'
(मूल अंग्रेजी आलेख के
हिन्दी अनुवाद पर आधारित)
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