जो फिल्म देखने के रु.300 देते हैं क्या वे नाटक देखने के रु. 50 नहीं दे सकते?
रंगकर्म की लोकप्रियता और प्रसार में वृद्धि के लिए यह अत्यावश्यक है कि लोगों को टिकट लेकर नाटक देखने के लिए प्रैरित और मजबूर किया जाय. फ्री में दिखाना बंद कीजिए चाहे दर्शक कितने भी कम क्यों न हों. हाँ, टिकट का मूल्य कम या अधिक किया जा सकता है मांग के आधार पर. मुम्बई में मैं कई वर्षों से नाटक देख रहा हूँ. रु. 300 से कम का टिकट नहीं मिल पाता है अक्सर. रु. 500 और रु. 700 के टिकट भी खूब बिकते हैं. पर दिल्ली में, अहमदाबाद में या भारत के अन्य शहरों में नाटक के टिकट का मूल्य रु. 100 से रु. 200 तक अधिकतर रहता है जैसा मुझे लगता है. जो लोग मॉल में फिल्म देखने पटना में 300 रुपये दे सकते हैं वे क्या नॉन-एसी हॉल में नाटक देखने के रु. 50 और एसी हॉल में रु. 100 या उससे कुछ अधिक नहीं दे सकते? नहीं दे सकते तो वे नाटक देखने के लिए योग्य दर्शक नहीं हैं. नॉन एसी हॉल में सबसे पीछे की एक-दो कतारों में रु. 10 या रु. 20 के टिकट भी रख सकते हैं ताकि निर्धन भी नाटक में रूचि को कायम रख सकें. सीधा सा तर्क है कि नाटक करने में काफी खर्च आता है और रंगकर्मियों को अपने जीवन-यापन के लिए भी पैसे चाहिए जो दर्शकों से प्राप्त करने की कोशिश होनी चाहिए. प्रेक्षागृह के बाहर विभिन्न व्यापारिक संस्थानों के बैनर लगाने की एवज में उनसे पैसा लेकर भी कुछ रकम प्राप्त की जा सकती है. रंगकर्मियों का एक पैनल बनाया जाय और जो पैनल में शामिल हों उन्हें रियायती दर पर टिकट दिया जाय (सीमित संख्या में) ताकि कुछ दर्शक तो पक्के मिल ही जायें.
लेखक - हेमन्त दास 'हिम'
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