Tuesday 12 June 2018

बापी बोस को संगीत नाटक अकादमी अवार्ड मिलने की खबर - पाटलिपुत्र अवार्ड से पहले ही सम्मानित

 रंगनिर्देशक बापी बोस को संगीत नाटक अवार्ड की खबर




न्यूज नेशन में कार्यरत मशहूर पत्रकार रविन्द्र त्रिपाठी ने अपने एक सोशल साइट पर लिखा है बापी बोस एवं हेमा सिंह को साहित्य अकादमी अवार्ड मिलने की खबर है बिहार से लगाव रखनेवाले और पाटलिपुत्र अवार्ड से सम्मानित इस अत्यंत गुणी निर्देशक और पटरचनाकार  को देश के सर्वोच्च रंग सम्मान देने की सूचना से मन हर्षित है! आइये एक नज़र डालते हैं इनकी रंगयात्रा पर-

बिहार की संस्कृति से लगाव रखनेवाले बापी बोस का जन्म पश्चिम बंगाल के 24 परगना जिले के कंचनपाड़ा में अजीत कुमार बोस और अमिता बोस के पुत्र के रूप में 6 नवम्बर 1955 को हुआ। बहुआयामी प्रतिभा के धनी बापी बोस का प्रवेश 'जात्रा' में हुआ और वहाँ से लेकर आज तक कल्पनाशील निर्देशक सीनोग्राफर के रूप में उनकी यात्रा अनवरत जारी है। इंस्टिट्यूट ऑफ थिएटर आर्ट्स, कलकत्ता से निर्देशन में डिप्लोमा किया, तो राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से निर्देशन में विशेषज्ञता प्राप्त की। इसके बाद नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ ड्रामेटिक आर्ट, सिडनी (ऑस्ट्रेलिया) गए, जहाँ थिएटर तकनीक और डिजाइन पद्धति की उच्च शिक्षा ग्रहण की। सात वर्ष राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के रंगमंडल में रहकर कई प्रभावशाली प्रस्तुतियाँ की। देश-दुनिया में उनके समय के शायद ही कोई ऐसे नाट्य निर्देशक हैं, जिनके साथ इन्होंने काम नहीं किया है। इब्राहीम अल्काजी,प्रो हेलमिच, प्रो पीटर कूक,ब्रायन थॉमसन,हबीब तनवीर, प्रो मोहन महर्षि, राम गोपाल बजाज, जी एन दास गुप्ता,रतन थियम, भानु भारती, के एन पन्निकर, प्रकाश झा आदि उल्लेखनीय नाम हैं.

इनके द्वारा निर्देशित प्रमुख नाटकों में नटी विनोदिनी, दिल्ली चलो (इसकी दो प्रस्तुति लाल किला में हुई),सन्यासी की तलवार,तुरुप का पट्टा, ओथेलो,जूलियस सीजर के आखिरी सात दिन,एकला चलो रे, प्रथम पार्थ,कीप ऑन मूविंग, प्रथम पुरुष, सेवेंटिन्थ जुलाई,आषाढ़ का एक दिन आदि शामिल है। इन नाटकों में मल्टीमीडिया और इंस्टॉलेशन आर्ट का भरपूर प्रयोग किया गया। इसकी प्रस्तुतियों में सेट डिजाइन की प्रासंगिकता और भव्यता के साथ प्रकाश परिकल्पना की खूबसूरती एक साथ देखी जा सकती है।

दिल्ली में 'सर्किल थिएटर ग्रुप' के संस्थापक और आर्टिस्टिक डायरेक्टर हैं। काली बारी दिल्ली में इस रंगमंडल ने कई महोत्सव किए। देश-विदेश का शायद ही कोई ऐसा नामचीन महोत्सव हो जिसमें इनकी भागीदारी नहीं हुई। इनके लगभग सभी नाटक देश के अंतरराष्ट्रीय रंग महोत्सव (भारत रंग महोत्सव आदि) जैसे आयोजनों में मंचित हुए

अपनी शर्तों पर काम करने वाले बापी बोस का स्वभाव पूर्वाभ्यास के समय नारियल की तरह ऊपर से एकदम कठोर अनुशासन से बिल्कुल समझौता न करनेवाला होता है वही अपने कलाकारों के लिए अंदर से उतना ही कोमल है। रंगकर्म के हर विधा में सफलतापूर्वक और रचनात्मकता के साथ काम किया है। निर्देशन, सीनोग्राफी,वस्त्र विन्यास,प्रकाश परिकल्पना के साथ-साथ इन्होंने पचास से अधिक नाटकों में अभिनय किया है। जहाँ प्रशिक्षण के क्रम में इन्हें राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से छात्रवृति मिली वहीं अपने महत्वपूर्ण कार्यो के लिए संस्कृति मंत्रालय, भारत सरकार से सीनियर फेलोशिप, नेताजी सुभाष सम्मान (स्वर्णपदक), सर्वश्रेष्ठ निर्देशन के लिए नटसम्राट अवार्ड,पाटलिपुत्र अवार्ड से विभूषित किया गया। वामपंथी विचारधारा से गहरे जुड़े,अनेक पुरस्कारों और सम्मानों से विभूषित बापी बोस अपनी ज़िम्मेदारी बख़ूबी समझते हैं।

अभी कुछ दिनों से विपरीत परिस्थितियों से जूझ रहे हैं। स्वास्थ साथ नही दे रहा है। आप जल्द-से-जल्द स्वस्थ हों! आपकी रंगयात्रा अनवरत यूँ हीं जारी रहे ईश्वर से यही कामना है।

रंगमंच के इस शीर्ष सम्मान के लिए आपको हृदय की गहराईओं से बहुत-बहुत बधाई!
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आलेख - राजन कुमार सिंह 








Monday 11 June 2018

एकजुट खगौल के कलाकारों द्वारा नाटक 'बेटी बियोग' का मंचन पटना में 5.6.2018 को संपन्न

कम उम्र में बूढ़े बीमार से ब्याही गई बेटी की दिल द्रवित करनेवाली दास्ताँ 




बेटी का कहीं भी विवाह कर देना काफी  नहीं होता बल्कि उसके लायक उचित दूल्हे की तलाश कर उसी से व्याह नहीं करने और कुपात्र से कर देने पर कितनी भयावह स्थिति उत्पन्न हो जाती है यह दिखता है इस नाटक मेंकला, संस्कृति एवं विभाग और बिहार संगीत नाटक अकादमी की ओर से भारतीय नृत्य कला मंदिर में आयोजित चार दिवसीय रंगयात्रा श्रृंखला के अतिम दिन नाटक बेटी वियोग का मंचन हुआ।एकजुट खगौल के कलाकारों ने भिखारी ठाकुर लिखित नाटक का मंचन अमन कुमार के निदेशन में किया गया।वहीं नाटक मे दिखाया गया कि बेटियां पराया धन है,बेटी सिर पर बोझ है इसे जैसे- तैसे जल्दी विवाह कर ससुराल भेज देना चाहिए, आदि-आदि मानसिकताएँ के कारण बेटियों को लोग बकरी जैसा समझने लगते हैं, नाटक बेटी वियोग में जहाँ एक बाप पैसे की लालच में अपनी कम उम्र की बेटी की शादी एक बूढ़े बीमार व्यक्ति से कर देता हैं।पर लालच में अंधे माँ बाप एक नहीं सुनते ।शादी के बाद बेटी विलाप करते हुए अपने पिता से संवाद करती हैं और पूछती है कि आखिर उसका कसूर क्या है भोजपुरी के शेक्सपियर कहे जाने वाले महान लोक नाटककार भिखारी ठाकुर की यह कालजयी रचना है।मुख्य कलाकार गणेश-समीर राज ,पंच-रौशन कुमार, चटक-प्रदीप कुमार, दुल्हा के पिता- धमेन्द्र कुमार ,लोभा-रानी सिन्हा, दुल्हा -सोनू कुमार, बेटी-मनीषा कुमारी, सखी-अपराजिता प्रियदर्शनी,लक्ष्मी प्रियदर्शनी,कोरस-राजेश शमाँ, सोनू कुमार, काजल,राहुल रंजन, पुष्पा देवी, सगीत- गायन अजित कुमार, नालवादक- दिनेश झा,नगाड़ा-कामेश्वर प्रसाद नाटक में प्रकाश पर थे ज्ञानी प्रसाद। 
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आलेख - अमन राज 
लेखक का ईमेल - kumaramanthan12@gmail.com




Tuesday 5 June 2018

नाटक 'कुच्ची का कानून' के कलाकार

नाटक के दृष्यों को उसकी अंग्रेजी समीक्षा एवं एक अन्य हिंदी लिंक के साथ देखने हेतु यहाँ क्लिक कीजिये-   https://biharidhamaka.blogspot.com/2018/06/chorus-patna-staged-play-kuchhi-ka.html









Monday 4 June 2018

नाद पटना के द्वारा 'राग बसन्त' का मंचन 24.5.2018 को पटना में सम्पन्न

 कला की साधना में हिचक कैसी?
Read  more pictures in the original review in English here:   http://biharidhamaka.blogspot.com/2018/05/naad-patna-staged-play-raag-basant-in.html



गौरी को यह दिखाने के लिए कि वह मंच पर नाचकर वह कोई हीन कार्य नहीं कर रही है बसंत व्यास खुद लौंडा नाच करने मंच पर उतर आते हैं । गौरी दर्शकों के अभद्र टिप्पणियों से परेशान है जिसे वह अपने नारीत्व पर हमला समझती है। वह सोचती है कि लोग अपनी शारीरिक सुंदरता में अधिक रुचि रखते हैं न कि उसके द्वारा किए गए नृत्य के सौंदर्य पर। देश के पूर्वी क्षेत्र में सबसे लोकप्रिय नृत्य की रामायणी शैली के विकास पर नाटक के माध्यम से आख्यान प्रस्तुत करते हुए निर्देशक के रूप में सम्मान पानेवाला लौंडा नाच के क्षेत्र में प्रवेश करता है जिसमें रामायण की कहानी महिला के वस्त्र पहने एक पुरुष द्वारा सुनाई जाती है।

यह प्रस्तुती बसंत के जीवन पर केंद्रित है जो अपने जीवन में बहुत शुरुआत से गायन की रामायणी शैली की ओर प्रवृत है। उनके पिता अपने बेटे के भविष्य के बारे में चिंतित हैं और चाहते हैं कि उन्हें अपने पुजारी के पेशे में शामिल होना चाहिए। हालांकि कला का सही अनुयायी, बसंत गायन करता है और एक प्रसिद्ध गायक बन जाता है। वह गुलाब व्यास के संपर्क में आता है और रामायणी गानेवालों की टोली में शामिल हो जाता है। गौरी के प्यार में वह रामायणी की धुन पर अपने पैरों को थिरकाता है जबकि पहले वह पहले मात्र गाया करता था। बेशक, बसंत व्यास की बसंत लौंडा तक की यात्रा एक आसान यात्रा नहीं है। एक ब्राह्मण कुल के आदमी को यह सुनने हेतु सहिष्णुता होनी चाहिए कि "लौंडा आ गया नाच दिखाने"। लौंडा-नाच की शैली एक नई ऊंचाई तक पहुंच जाती है और सरकार भी राष्ट्रपति के हाथों उसका सम्मान करवाकर उसके गुण को स्वीकारती है। अब जाकर बसंत के पिता को होश आता है और वे मिलकर बसंत और उनकी पत्नी गौरी दोनों को आशीर्वाद देते हैं।

कहानी कई सवाल उठाती है। जैसे कि  यह जाति विभाजन में सबसे ऊपर के पायदान पर आनेवाली व्यक्ति द्वारा नाच का प्रदर्शन कर उसका महिमा मंडन करना हो। दूसरा मुद्दा यह है कि क्या किसी व्यक्ति को नृत्य के इस अनिश्चित पेशे को चुनना चाहिए कि वह पुजारी के पूरी तरह से स्थिर पेशे को छोड़ दे। और इसका जवाब एक निस्संदेह हां है।

प्रस्तुति के प्रारम्भिक बिंदु से अंत तक पूरी प्रस्तुति यह एक संगीतमय मनोरंजन प्रधान थी। विवेक कुमार के गीत  मधुर था और मो. जॉनी द्वारा  संगीत आश्चर्यजनक रूप से लयपूर्ण था। रुबी खातुन का अभिनय असरदार था और दर्शकों की अपमानजनक टिप्पणियों के बाद अपने दिल पर लगी चोटों को दिखाते हुए चेहरे के भाव यथार्थवादी थे। हीरा लाल रॉय नृत्य के माहिर हैं और रुबी खातुन हीरा लाल रॉय की उच्च नृत्य प्रतिभा से अपना मेल बैठाने में सफल रहीं। शुब्रो भट्टाचार्य भी एक उत्कृष्ट अभिनेता हैं और सीमित अवसर मिलने पर भी हुए उन्होंने गुलाब व्यास के रूप में अपनी छाप छोड़ी। बसंत व्यास के रूप में सुमन कुमार ने अच्छा काम किया। सुभाष पंडित के रूप में रणू कुमार ने एक पिता के सच्चे पश्चाताप को दिखाया जिसने पहले अपने बेटे की प्रतिभा को पहचाना नहीं था। यहां तक ​​कि हरकिशन सिंह मुन्ना के अतिथि प्रदर्शन ने लोगों का ध्यान आकर्षित किया।

मो. जोनी (हार्मोनियम), राजेश क्र (ढोलक), राजन सिंह (झाल) कामख्या जी (क्लैरेट)  दर्शकों की नजर की सीध में मंच पर पीछे बैठे थे। यह नाटक के मुख्य विषय के रूप में संगीत की स्थिति को ऊपर उठाता है। नंद कु., मोहम्मद असिफ, उज्ज्वल कु. और राजीव रॉय ने इसे एक अच्छा सामूहिक गान दिया। उदय सिंह मूल नृत्य रूप की वास्तविकता को बनाए रखने में सक्षम थे और यह रामायण आधारित नाटक में गायन के साथ महत्वपूर्ण था। उपेंद्र कुमार की ध्वनि प्रणाली अच्छी तरह से काम कर रही थी और राजकुमार प्रसाद की प्रकाश व्यवस्था दोषरहित थीं। जितेंद्र कुमार जीतू द्वारा तैयार साज-सज्जा आवश्यकता के अनुसार थी। बीरबल, हीरालाल और रेणू ने यहां आवश्यक सरल सेट डिज़ाइन तैयार किया। इस संगीत नाटक को मो. जॉनी को श्रेय देना चाहिए जिन्होंने सभी गानों के मधुर संगीत तैयार किए थे। साथ ही, आखिरी लेकिन कम से कम नहीं, इस प्रस्तुति के निदेशक विवेक कुमार को ईमानदारी से सराहना की जानी चाहिए जिन्होंने गीत भी तैयार किए थे।

यह दर्शकों द्वारा देखा गया एक यादगार नाट्य-प्रदर्शन था। इस तरह के एक संगीतबद्ध नाटक न केवल नाटक की रोचकता को बढ़ाते हैं  बल्कि नाटकीय विधा के सर्वग्राही दृष्टिकोण को भी उजागर करता है जहां कला के हर रूप का आदर किया जाता है और मात्र अभिनय तक सीमित नहीं रहता। अद्भुत शो के लिए पूरी टीम की सराहना की जानी चाहिए।
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यह लेख मूल अंग्रेजी लेख के हिन्दी अनुवाद पर आधारित है.
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